मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है- हाल में आई एक शोध-रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में भारतीयों को मारने वाली बीमारियों की लिस्ट में टॉप पर दिल की बीमारियां थीं, दूसरे नंबर पर फेफड़ों से जुड़ी बीमारियां थीं। करीब 16 साल पहले हम बहुत पिछड़े थे, सबसे ज्यादा मारने वाली बीमारियों में दस्त से जुड़ी बीमारियां थीं, दूसरे नंबर पर सांस से जुड़े इन्फेक्शन आते थे। मतलब कितनी अन-रोमांटिक वजहें थी मरने की, दस्त से मर गए। अब दिल की बीमारियों से मरते हैं, फेफड़ों की बीमारियों से मरते हैं। इतने विकसित हो लिए हैं कि पूरे शहर में धुआं धुआं रहता है। ये विकास के लक्षण हैं।
उर्दू शायरी पढ़ लें, तो पता लगता है कि मौत की लगभग हर वजह दिल ही है। उर्दू शायरी पढ़कर कुछ ऐसी तस्वीर उभरती है कि जवानी से लेकर बुढ़ापे तक रोजगार सिर्फ एक ही है- दिल देना। पुरानी हिंदी फिल्मों को देखकर कोई वहम पाल सकता है कि कैंसर से बहुत बड़ी तादाद में लोग मरते रहे होंगे। राजेश खन्ना की ‘आनंद’ और जया बच्चन की ‘मिली’ से अंदाज होता था कि बहुत लोग मरते हैं कैंसर से। 1990 में इस मेरिट लिस्ट में टॉप पर दस्त से जुड़ी बीमारियां थीं, एक भी फिल्म में ऐसी बीमारी से मरा हीरो ना दिखाया गया, कैंसर से राजेश खन्ना को मरता जरूर दिखाया गया। फिल्में सही तस्वीर पेश नहीं करतीं, मैं इस बात से सहमत हूं।
अब फेफड़ों की बीमारियों ने इस मेरिट लिस्ट में दूसरा नंबर हासिल किया है, उम्मीद की जानी चाहिए कि अब ऐसी फिल्में आएंगी जिनमें फेफड़ों की बीमारियों का चित्रण होगा। एक सीन तो अगली किसी फिल्म में जरूर होना चाहिए-
एक बहुत बड़े शहर में रहने वाली नायिका कहती है- मैं नहीं जाऊंगी उस शहर, वह शहर बहुत पिछड़ा हुआ है।
हीरो जवाब देता है- नहीं मेमसाहब, हम पिछड़े नहीं हैं, हमारे यहां भी दिन रात धुआं-धुआं रहता है, गाड़ी का धुआं, फैक्ट्री का धुआं, इतना धुआं कि हर साल 20 हजार मरते हैं हमारे शहर में।
हीरोइन सहमत होती है- हां फिर तो डिवेलप्ड सिटी है तुम्हारा।
दोनों फिर धुएं में खो जाते हैं।